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Home Hindi Section

The Lockdown Effect on Poultry & its Contribution in National Economy – पोल्ट्री का अर्थव्यवस्था को सपोर्ट

The Lockdown Effect on Poultry & its Contribution in National Economy

Dr. Ibne Ali by Dr. Ibne Ali
April 11, 2020
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The Lockdown Effect on Poultry & its Contribution in National Economy – पोल्ट्री का अर्थव्यवस्था को सपोर्ट

कोरोना महामारी ने सभी राजनीतिक और आर्थिक समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है| इस समय हर देश के सामने सिर्फ यही चुनौती है की इस विपदा से कैसे निपटा जाये| आर्थिक गति विधियां लोगो के काम करने से चलती हैं, अधिकतर गतिविधियों में लोगो के एक स्थान पर जमा होने से आर्थिक गतिविधि चलती है| अब चूँकि इस बीमारी से बचने का एकमात्र उपाय एक दूसरे से दूर रहना है, तो आप सोच सकते हैं की अर्थव्यवस्था पर इसका क्या असर पड़ रहा होगा| कोरोना से पहले भी भारत आर्थिक रूप से कोई अच्छी स्थिति में नहीं था परन्तु अब तो हालात बद्तर हो रहे हैं|

खाद् व्यवस्था पर भी इसका असर पड़ना स्वाभाविक है| भारत में अधिकतर कृषि लेबर पर निर्भर है और पंजाब हरयाणा छोड़ कर अधिकतर राज्यों में मशीनीकरण बहुत कम है| अब यह गेहूं की कटाई का सीज़न शुरू हो गया है ऐसे में लेबर की कमी एक बड़ी चुनौती बन कर सामने आ रही है| इसके बाद धान लगाने की तयारियां होने लगती हैं जो लेबर कोरोना से फैले अवसाद के कारण शहरों और हरयाणा पंजाब से पलायन कर चुकी है उसका लौटना इतना आसान नहीं है जबकि अभी लॉक डाउन को लेकर न तो सरकार की स्थिति स्पष्ट है और अफवाहों का बाज़ार गरम है| रही सही कसर मीडिया गलत सलत ख़बरे दिखा कर पूरी कर रहा है| ऐसे में कोरोना से बड़ी विपदा आर्थिक संकट के रूप में मुह खोले हमारे सामने खड़ी है| अब सवाल ये है की लॉक डाउन यदि आगे बढ़ता है तो सरकार की स्पष्ट निति क्या रहेगी? क्यूंकि बिना किसी सरकारी स्पष्टता के जो थोड़े बहुत ज़रूरी सामान की सप्लाई हो रही है वो भी टूट सकती है और संकट और गहरा सकता है| भारतीय जनता उस बिगड़े हुए बच्चे की तरह हैं जो हर उस काम का उल्टा करता है जो उससे कहा जाये, आज भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो पोलियो की वैक्सीन सिर्फ इसलिए बच्चो को नहीं पिलाते क्यूंकि वो सोचते हैं इससे उनके बच्चे नपुंसक हो जायेंगे ऐसे में कोरोना से बचने के लिए मास्क की एहमियत और हाथ धोना और सोशल डिस्टेंसिंग की एहमियत कैसे सिखाई जाएगी? कई रेसेअर्चो में ये देखा गया है की सही तरह से सिर्फ मास्क पैहेन ने से 80 प्रतिशत तक संक्रमण को ख़त्म किया जा सकता है|

 

भारतीय जनता के लिए कोरोना 22 मार्च के बाद चिंता का विषय बना परन्तु पोल्ट्री व्यवसाय पर यह फरवरी के पहले हफ्ते के बाद से ही आक्रामक हो गया था| अफवाहों के चलते महीने भर के अन्दर पोल्ट्री को 7000 करोड़ तक का नुक्सान हुआ जिसका आंकलन होली से पहले हो चुका था लेकिन मार्च के अंत तक जब क्लोजिंग का समय होता है यह नुक्सान बिज़नस लाइन की खबर के अनुसार साड़े बाईस (22.5) हज़ार करोड़ रूपए का नुकसान हो चुका था| पोल्ट्री व्यवसाय भारतीय कुल जीडीपी का लगभग 1.3% है और इसमें डायरेक्टली और इनडायरेक्टली 5 से 7 करोड़ लोग जुड़े हुए हैं| इतने कम जीडीपी वाला उद्योग भारतीय जनसँख्या की एक बड़ी आबादी को रोज़गार दे रहा है यह कोई मामूली बात नहीं है| बेरोज़गारी और पूंजी निवेश में घाटे के दौर में पोल्ट्री व्यवसाय में नुक्सान के लम्बे और घातक परिणाम हो सकते हैं| इन दो महीनो में पोल्ट्री की 20% तक एसेट वैल्यू चौपट हो गई| होली तक इस नुकसान का कारण चिकन में कोरोना की अफवाह रही उसके बाद लोगो में पैनिक और अब दुकानों का बंद होना और सप्लाई चेन का टूट जाना| इस समय पोल्ट्री को हुए सही नुकसान का आंकलन नही किया जा सकता| रैंडम फील्ड सर्वे ही इसकी पूरी जानकारी दे सकता है|  

 

भारतीय फ़ूड सप्लाई चेन ट्रेडर यानि बिचोलियो द्वारा चलायी जाती है| बिचोलिये इस चेन में खूब मुनाफे कमाते हैं यदि दूध को छोड़ दिया जाये तो प्याज़ से लेकर मुर्गे तक सब ट्रेडर्स के रहमो करम पर चलते हैं| मुर्गे की क्यूंकि जमाखोरी नहीं की जा सकती इसलिए इसके दाम डिमांड सप्लाई के नियमो से अत्यधिक प्रभावित होते हैं| यदि कुछ दिनों को छोड़ दिया जाये जैसे सावन या नवरात्रे तो मुर्गे की डिमांड साल भर एक जैसी रहती है सिर्फ सप्लाई साइड पर कमी या बढ़ोतरी ही रेट्स को प्रभावित करती है| इसमें एक पेंच और होता है जो की ट्रेडर के हाथ में होता है, यदि सप्लाई कम होती है तो मुर्गा महंगा बिकता है यदि सप्लाई थोड़ी भी बढती है और कोई नेगेटिव न्यूज़ मार्किट में आती है जैसे बर्ड फ्लू की अफवाह या ये कोरोना की अफवाह इससे ट्रेडर द्वारा मार्किट को तुरंत गिरा दिया जाता है| ऐसे स्थिति में कटर तो कनज़्युमर को मीट महंगा ही देता है मगर फार्मर से मुर्गा सस्ता खरीदता है और खुद अधिक मार्जिन कमाता है| पोल्ट्री क्षेत्र में न्यूनतम मूल्य जैसा (MSP) कुछ नहीं है इसलिए बड़े नुकसानों से फार्मर कोई नहीं बचा पाता|

 

पोल्ट्री किसान साल में चार त्योहारों से बहुत उम्मीद लगा कर बैठा रहता है| होली, ईद, दिवाली और न्यू इयर| इन सबमे होली का एक अलग महत्त्व है पर इस साल सबसे अधिक नुक्सान होली में ही हुआ| किसान को मुर्गा ओने पाने दामो में मार्किट में बेचना पड़ा कुछ लोगो ने आगे हालात सुधरने की उम्मीद में मुर्गा नहीं बेचा परन्तु वो उम्मीद लॉक डाउन के साथ बिलकुल समाप्त हो गयी| अब स्थिति यह है की फार्मर के पास मुर्गा पड़ा मर रहा है पर फीड उपलब्ध नहीं है क्यूंकि सप्लाई में मुश्किल हो रही है| फार्म में मुर्गा मुर्गे को खा रहा है मोर्टेलिटी बढ़ने से नुकसान दुगना हो गया है| पिछले एक महीने से पूंजी ख़त्म होने से फार्मर के पास फीड खरीदने के पैसे नही है और मौजूदा हालात में कोई फीड वाला क्रेडिट देने को तैयार नहीं है| स्थिति दिन बा दिन बिगड़ रही है| यहाँ इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता लॉक डाउन एक बेहद ज़रूरी कदम था लेकिन पशु पालन सम्बन्धी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कोई कार्यकारी निति बनानी चाहिए थी क्यूंकि ये अर्थव्यवस्था का ऐसा क्षेत्र है जो काफी नाज़ुक है और सरकार के अधिक योगदान के बिना स्वयं से ही चल रहा है और यदि ऐसे आर्थिक धक्के इस व्यवसाय को लगेंगे तो यह धराशायी हो जायेगा और इसे दोबारा खड़ा करना बहुत कठिन होगा| इस क्षेत्र से बेरोजगार हुए लोग भी सरकार के लिए एक बोझ बन जायेंगे|

 

निति विशेषज्ञों को इस समय पूरा ध्यान कृषि और पशुपालन पर लगाना चाहिए और हर संभव मदद करनी चाहिए| इस क्षेत्र में एक बड़ी आबादी लगी हुई है और पूंजी का संचारण भी गाँवों से होता है| यह बात कोई ढकी छुपी नहीं है की लॉक डाउन के दौरान सप्लाई परमिट होने के बावजूद किसानो को फीड लाने ले जाने में अत्यंत बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, जिसकी वजह से ट्रांसपोर्टर और ड्राईवर कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं होते और जो होते हैं स्वाभाविक है वो अधिक पैसे मांगते हैं| इससे वस्तु के दाम बढ़ जाते है और महंगाई बढ़ जाती है| सरकार यदि कोई पैकेज भी न दे सिर्फ सप्लाई चेन की बाधाओं को हटा दे तो भी स्थिति कई गुना सुधर सकती है और डूबता हुए व्यवसाय को बर्बाद होंने से बचाया जा सकता है| कुछ किसानो और पोल्ट्री डीलरों से बात करके पता चला की इस समय नया चूज़ा न के बराबर पड़ रहा ही जिसकी कई वजहें हैं| पहली तो फीड और चूज़ा आने में दिक्कत है, दूसरा लेबर महंगी हो गयी है, तीसरा अब कोई भी उधार सामान देने को तैयार नहीं और किसानो के पास पूंजी बची नहीं, चौथा मार्किट में कम डिमांड| जानकारों का कहना है अगले दो महीने जो बम्पर सेल और मुनाफो के महीने होते हैं उनमे चिकन और अन्डो की उपलब्धता कम रहने की पूरी पूरी आशंका है और इनकी कीमतें आसमान पर होंगी| ईद पर मुर्गे की डिमांड बढ़ जाती है स्वाभाविक है डिमांड अधिक होगी और सप्लाई नहीं होगी तो दाम तो बढ़ेंगे ही| कुल मिलाकर अच्छा करने की क्षमता रखने के बावजूद पोल्ट्री उद्योग चौतरफा मार झेल रहा है, क्यूंकि इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा|

 

अब ये बात साफ़ है की पोल्ट्री व्यवसाय भी कोरोना की चुनौती से अछूता नहीं है, लेबर की कमी, सप्लाई चेन की कमी के कारण रॉ मटेरियल की उपलब्धिता में बाधा पड़ रही है| ऐसे में एक अच्छे खासे चलते चलाये उद्योग की कमर टूट गयी है| आंकड़ो के अनुसार लगभग 5 से 7 करोड़ लोग पोल्ट्री व्यवसाय से जुड़े हुए हैं, जिसमे ठेले पर अंडे बेचने वाले से लेकर मक्का के खेतो में मक्का काटने वाली लेबर तक होती है| इसके अलावा बीच की सप्लाई चेन में अलग अलग लोग कुछ न कुछ करते हैं जैसे फार्मर जो मुर्गी पालते हैं इसमें फार्म का मालिक और उसकी लेबर, हैचरी प्लांट्स जिसमे हैचरी का मालिक और लेबर, सुपरवायिज़र, मेनेजर आदि को काम मिलता है| इसी तरह दवाई की कंपनिया, फीड मिल और उसमे काम करने वाले सैकड़ो लोग, मुर्गा ढोने वाले ट्रक के मालिक और उनके ड्राईवर, आढ़त पर काम करने वाले लोग मुर्गा काट कर बेचने वाले और होटल और चिकन फ्राई के ठेले लगाने वाले लोग| कोई वेजीटेरियन यहाँ यह सोच सकता है की लोगो को बीमारी से जान के लाले पड़े हुए हैं ऐसे में मुर्गा खाने की या इस व्यवसाय को बचाने की कोई क्यों सोचे? लेकिन यहाँ बात सिर्फ मुर्गा खाने की नहीं है बल्कि भारत जैसे देश में जहाँ की आबादी इतनी अधिक है और रोज़गार और नौकरियों की पहले ही इतनी कमी है ऐसे में एक अच्छे खासे चलते हुए सेक्टर को बर्बाद कर देना कहाँ तक ठीक है? पोल्ट्री व्यवसाय भारतीय कृषि क्षेत्र के सबसे उन्नत उद्योगों में से एक है जिसके लिए किसी कुशलता की आवश्यकता नहीं है, और इसमें पूंजी का चक्र बहुत तेज़ होता है| इस व्यवसाय ने सीधे तौर पर भारत की 4 से 5% रोज़गार लायक आबादी को आसरा दिया हुआ है| भारत में कुल जनसँख्या की 45% के लगभग जनता ही रोज़गार के लायक है इसकी 5% संख्या को रोज़गार देना, देश की अर्थव्यवस्था को आर्थिक स्थिरता प्रदान करने के लिए डूबते को तिनके का सहारा देने के सामान प्रतीत होता है, अर्थात उम्मीद की एक किरन जगाता है|

सरकार को इस व्यवसाय पर ऐसे समय में इसलिए ध्यान देना चाहिए क्यूंकि –

पहला ये बेरोज़गार लेबर को रोज़गार देगा जिससे पूंजी, कुछ ही सही पर गरीब असंगठित क्षेत्र में पहुंचेगी ज़रूर, जो की इस समय सरकार के लिए चिंता का विषय है

दूसरा यह उस आबादी को रोज़गार में व्यस्त रखेगा जिसके पास कोई कौशल नहीं है और वह कुछ और नहीं कर सकती|

तीसरा यदि यह व्यवसाय बंद होता है या इसमें कमी होती है तो वो लोग जो इससे जुड़े हैं किसी और क्षेत्र में व्यवसाय खोजने निकलेंगे जिसका भार अंततः सरकार पर ही पड़ना है|

चौथा भरात में फ़ूड और न्यूट्रीशन सिक्यूरिटी को गहरा धक्का लगेगा और चिकन मीट और अंडे के दाम आने वाले समय में आसमान छूने लगेंगे और खाद् सामग्री महंगी होने के कारण मिडिल क्लास तबका इससे वंचित रह जायेगा जबकि 70% भारतीय जनता चिकन मीट का सेवन करती है और ऐसे महामारी के माहोल में हाई प्रोटीन डाइट इम्युनिटी को बढ़ा कर रखने में बहुत सहायक है|

पांचवा फायदा जिसे सरकार के संज्ञान में लाना आवश्यक है वो यह है की यह स्थिति भारत में एक अवसर के रूप में उभर सकती है, हम सब जानते हैं की भारत में पोल्ट्री पलान यूरोप और अमेरिका की तर्ज़ पर होता है और कोई भी दक्षिण एशियाई देश पोल्ट्री उद्योग में भारत का मुकाबला नहीं कर सकता ऐसे में यदि इस अवसर को आस पास के क्षेत्रो में चिकन मीट और अंडा एक्सपोर्ट को बढ़ा कर इस्तेमाल किया जाये तो फॉरेन एक्सचेंज के रूप में कुछ गवाने के बजाये कमाया ही जा सकता है|

छठा, इस समय मक्का और गेहूं की नयी फसल कटने का समय है इस समय यदि चिकन वयवसाय और फार्मर्स को सपोर्ट किया जायेगा तो माल तैयार होने की लागत कम आयेगी और फार्मर जो पिछले 2 महीनो से नुकसान में थे उस नुक्सान से कुछ उभर सकेंगे और आर्थिक सिस्टम में कुछ पूंजी धकेल पायेंगे|

यह समय चिकन के बम्पर प्रोडक्शन का समय है| अंडे के उत्पादन को बढ़ाकर अगले दो तीन महीनो के लिए एक स्टॉक तैयार किया जा सकता है| यहाँ एक और बात महत्त्व पूर्ण है वो ये की अगले 15 दिनों में रमज़ान का महिना शुरू हो जायेगा जिसमे खाने की सामग्री की अच्छी खपत होती है| पिछले कुछ सालो से यह देखा गया है की मुर्गे और अंडे की खपत रमज़ान के महीने में कई गुना बढ़ जाती है| पिछले साल मुर्गा रिकॉर्ड ब्रेक 130 रूपए पर किलो फार्म से बिका था जिसका मतलब एक एक छोटे फार्मर ने भी 30 से 50 रूपए तक एक किलो मुर्गे पर कमाया था, यानि  5000 मुर्गी पालने वाले  किसान  ने लगभग 4 लाख से 5 लाख रूपए इस सीजन में कमाए थे| यह अवसर यदि किसानो को इस बार भी मिल जाये तो अर्थव्यवस्था की कुछ दुविधाए तो दूर की ही जा सकती हैं और साथ ही साथ कोरोना से पीड़ित एक व्यवसाय को तो बिना किसी खास मुश्किल के सुधारा जा सकता है|

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